नवम्बर २००१
है कुछ भी नहीं पर अनादिकाल से हम बार-बार बंधे जा रहे हैं. अज्ञान का आधार तो हमारा मन ही है, मन की दीवारें गिर जाएँ तो यह अज्ञान उसी तरह लुप्त हो जायेगा जैसे अँधेरे कमरे की दीवारें गिर जाएँ तो वहाँ अँधेरा नहीं टिकता. जैसे बादल की सत्ता सूर्य से है पर वही उसको ढक लेते हैं, वैसे ही आत्मा की सत्ता से ही अज्ञान है. ज्ञान ही हमें इससे मुक्त करता है. यह मुक्ति पल भर को भी मिले तो अमूल्य है.
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