अक्तूबर २००१
एक मात्र ईश्वर ही हमारे प्रेम का केन्द्र हो, जो कहना है उसे ही कहें. अन्यों से प्रेम हो भी तो उसी के प्रति प्रेम का प्रतिबिम्ब हो. परमात्मा की कृपा जब हम पर बरसती है तो अपने ही अंतर से बयार बहती है. तब अंतर में तितलियाँ उड़ान भरती हैं. अंतर की खुशी बेसाख्ता बाहर छलकती है. ऐसा प्रेम अपनी सुगन्धि अपने आप बिखेरता है. दुनिया का सौंदर्य जब उसके सौंदर्य के आगे फीका पड़ने लगे, उस “सत्यं शिवं सुन्दरं” की आकांक्षा इतनी बलवती हो जाये, उसके स्वागत के लिए तैयारी अच्छी हो तो उसे आना ही पडेगा. अंतर की भूमि इतनी पावन हो कि वह उस पर अपने कदम रखे बिना रह ही न पाए. यह साधना का दूसरा सोपान है.
aapka likha padhna ...ek tazi hava ke jhonkhe ke saman hota hai ...
ReplyDeleteabhar..