अक्तूबर २००१
जहां श्रद्धा होती है, वहीं बुद्धि लगती है अर्थात बुद्धि स्थिर होती है. फिर संशय का वहाँ कोई स्थान ही नहीं रहता. जहां प्रेम होता है वहाँ उसके सान्निध्य की चाह होती है. ईश्वर के प्रति यानि शुभ के प्रति, आनंद व शांति के प्रति श्रद्धा व प्रेम होगा तो बुद्धि अपने आप उससे संयुक्त होगी. साधक के मन में तब उसे पाने की चाह दृढ होगी. साधना के प्रथम चरण में ही ईश्वर की झलक अपने अंतः करण में मिलने लगती है. साधक का शांत पर खिला हुआ मुखड़ा ही इस बात की खबर देता है कि कोई है, जिसकी हमें तलाश है तथा कोई है जो हमें भी खोज रहा है. साधक के भीतर एक ललक भी रहती है जो उसे निरंतर पथ पर टिकाये रहती है. वर्तमान में रहकर अपनी ऊर्जा को बचाए रखने की सहज विधि उसे सद्गुरु देता है. जीवनी शक्ति यदि कम हो तो मन अस्थिर हो जाता है. शरीर व मन से ऊपर उठ कर उसे आत्मा के अनंत मार्ग पर चलना है इसकी याद वह कभी बुद्धि से विलग नहीं होने देता.
bahut sunder........
ReplyDeletebahut hi badhia ..
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