ध्यान में ईश्वर की परम चेतना के समान जब हमारी लघु चेतना हो जाती है तो हमारा मन स्थिर हो जाता है. भौतिक वस्तुओं में जब तक मन लगता है अस्थिर रहता है क्यों कि दोनों ही बदलने वाले हैं, स्थिर तो केवल एक मात्र परम चेतना ही है, उसे खोजने कहीं दूर नहीं जाना है वह हमारे भीतर ही है. प्रेम ही उस तक पहुंचने का मार्ग है उसे भी हमारा उतना ही ख्याल है जितना हमें उसका. वह हमारा कुशल-क्षेम रखने को तैयार है सिर्फ हमें ही पूर्ण समर्पित होना है.
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