Monday, August 29, 2011

आत्मा और मन


नवम्बर २००१ 
एक बार एक निर्धन व्यक्ति उसी पथ से लौट रहा था जहां से राजा भी गुजर रहा था. लोग उसे झुक- झुक कर सलाम करते तो इसे भ्रम होता कि मुझे ही तो नहीं कर रहे हैं. वैसे ही हमारा मन है, थोड़ी सी प्रशंसा होती है तो उसे लगता है उसने बड़ा तीर मार लिया, कोई प्रेम देता है तो वह स्वयं को बहुत योग्य समझ कर फूल जाता है... जानता नहीं वह तो आत्मा का उपकरण मात्र है जैसे कोई किसी बड़े आदमी का सेक्रेट्री हो तो वह भी खुद को महत्वपूर्ण मानने लगता है. आत्मा क्योंकि अपने आप में पूर्ण है उसे न प्रशंसा की भूख है न प्रेम की, वह ध्यान भी नहीं देता इन बातों पर. जैसे कोई राजा छोटी-छोटी बातों पर ध्यान नहीं देता. बेचारा मन ख्वाहम्खाह मारा जाता है. अब हम पर निर्भर है कि हम दोनों में खुद को क्या मानते हैं.

2 comments:

  1. सहज सरल शब्दों में बहुत गहरी बात.
    सचिन को भारत रत्न नहीं मिलना चाहिए. भावनाओ से परे तार्किक विश्लेषण हेतु पढ़ें और समर्थन दें- http://no-bharat-ratna-to-sachin.blogspot.com/

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