१६ दिसम्बर २०१७
असजग व्यक्ति ही स्वयं के लिए और अंततः समष्टि के लिए दुःख का कारण
बनता है. सृष्टि का हर कण स्वयं में आनंदित है. दुःख की अपने आप में कोई सत्ता
नहीं है, यह सुख पर पड़ा आवरण मात्र है. कल्पना और स्मृति ही इसके दो आश्रय हैं. मानव
मन के द्वारा दुःख का सृजन होता है. जीवन अपने आप में इतना अनमोल है पर जैसे नेत्र
में पड़ा धूल का नन्हा सा कण दृष्टि को बाधित कर देता है और विशाल गगन भी दिखाई
नहीं देता, वैसे ही मन में उठा कोई संस्कार जीवन की दिव्यता और भव्यता को भुला
देता है. जैसे एक बीज अनंत बीजों का कारण है उसी प्रकार एक संस्कार अपने जैसे अनेक
संस्कारों को जन्म देता है. जीवन तब एक पहेली बन जाता है.
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