Sunday, September 9, 2018

मन खाली देख चला आता वह


१० सितम्बर २०१८ 
लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जो हमें करना है उसे कर लें और जो नहीं करना है उसे त्याग दें, जो जीवन के लिए उपादेय है उसे साध लें और जो हेय है, उसे त्याग दें. इतनी सी ही साधना है और इतना सा ही जीवन है. हर पल हम कुछ ग्रहण करते हैं और कुछ छोड़ते हैं. सर्वप्रथम तो श्वास को ही लें, भीतर आती हुई श्वास से ऊर्जा ग्रहण करते ही बाहर जाती हुई श्वास के साथ दूषित वायु का त्याग होता है. प्रातःकल उठकर शौच आदि के त्याग बाद ही कुछ ग्रहण किया जाता है. मैले वस्त्रों का त्याग किया और स्वच्छ वस्त्र धारण किये. बाहर के जगत में हर घड़ी यह क्रिया चल रही है, किन्तु भीतर के जगत में कितना कुछ एकत्र हो गया है. बचपन में की गयी शैतानियाँ भी याद हैं और उनके कारण पड़ी डांट भी, युवावस्था में की गयी नादानियाँ भी याद हैं और उनके कारण हुई झेंप भी, कल किसी से वाद-विवाद हुआ था उसकी धूल अभी झाड़ी ही नहीं कि आज सुबह फिर किसी को फटकार लगायी. छोटी-छोटी बातों पर जब कभी मन आहत हुआ होगा वह सब भी सम्भाल कर रखा है. त्यागने की कला सीखी ही नहीं, इसे ही जैन शास्त्रों में निर्जरा कहते हैं, बीता हुआ सब कुछ जो भी असार है, जो किसी काम का ही नहीं, जो छिलका ही छिलका है, उसे क्यों सहेज कर रखना भला. ध्यान में ऐसा ही करना है, जो भी भीतर आये उसे नदी की धारा की तरह बहते चले जाने देना है, बिना कोई टिप्पणी किये, और एक दिन मन खाली हो जाता है. वहाँ सुंदर बगीचा बन जाता है, जहाँ किसी भी वक्त जाओ सुवास ही सुवास मिलती है, तल्खियों का कोई धुआं नहीं होता.  

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