ध्यान में हमें माधुर्य, स्नेह, प्रेम से उस चैतन्य को पुकारना है. धीरे-धीरे भीतर
जाना है. परमात्म रस को जागरण से प्रकट करना है. हमारा अंतर्मन सजग होता जाये तभी
ज्योति उसमें प्रकट होगी. प्रमाद यदि थोड़ा सा भी शेष रह गया तो प्रगति नहीं होती.
हृदय उसके प्रति प्रेम से इतना परिपूर्ण हो कि किसी और भाव के लिये जगह ही न रहे.
जैसे मीन जल के बिना नहीं रह सकती, जल से बाहर आते ही वह तड़पने लगती है. मन भी
प्रेम, शांति और आनंद के बिना नहीं रह सकता, जल का स्रोत सागर है आनंद का स्रोत
अस्तित्त्व है. मीन सागर में खुश है, मन को अस्तित्त्व में ही खुशी मिल सकती है. हमारे
जीवन में जो दुःख के क्षण आते हैं वह अपने स्रोत से विलग हुए मन के कारण ही आते
हैं. जैसे कोई पोखर किसी नदी से अलग हो जाये तो दूषित हो जाता है पर बहती हुई नदी
का पानी स्वच्छ रहता है.
अद्भुत ...!!रोम रोम खिल उठता है ...आपको पढ़कर ....!!
ReplyDeleteआभार ...अनीता जी ...!!
बहुत ज्ञानवर्धक संदेश...आभार
ReplyDeletenice
ReplyDeleteबहुत सुंदर बातें कहा है आपने..
ReplyDeleteप्रमाद यदि थोड़ा सा भी शेष रह गया तो प्रगति नहीं होती.
ReplyDeleteबहती हुई नदी का पानी स्वच्छ रहता है.
jiwan ka satya.
बहती हुई नदी का पानी स्वच्छ रहता है.
ReplyDeleteek satya.
सुन्दर बिम्बों से संकेत करती सार्थक पोस्ट।
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