ध्यान में साधक को जो भी अनुभव होता है उसे शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं है,
यदि कर भी दें तो बात पूरी तरह स्पष्ट नहीं होगी. ऐसे मन के भाव व्यक्त हों भी
कैसे, जो मन छोटा न रहकर बड़ा हो गया हो, सारा ब्रह्मांड उसी की सत्ता प्रतीत होता
हो और इस नाते संसार के सारे प्राणियों के प्रति प्रेम छलकता हो, जहाँ जड़ में भी
उसी के दर्शन होते हों. जो आँख बंद करने पर भी और आँख खोलने पर भी एक सा प्रकट
होता हो. जो बिना कानों के सुन सकता हो, ऐसे मन की बात को शब्द कहाँ तक पकड़
पाएंगे. वह तो सिर्फ भीतर महसूस किया जा सकता है. ऐसा क्षण जब कुछ भी पाना नहीं
होता कुछ छोड़ना भी नहीं, जो सहज रूप में प्राप्त है उसे पूरे होश से स्वीकारना.
यहाँ जो कुछ भी है सब उसी का है, जो वह है, वही तुम हो, दोनों एक हैं, पूर्ण
मुक्ति का अहसास तभी होता है. जब मन निर्वासनिक हो जाता है. और कोई चाहे भी क्या?
कौन किसे चाहे?, क्या चाहे?, जब सब कुछ एक ही है. संत ठीक कहते हैं ज्ञानी हजार
शरीरों से भोगता है.वह हरेक के भीतर एकमात्र उसी चैतन्य को देखता है, वह जहाँ भी जाता
है, पूरा जाता है जो भी करता है पूरा करता है. उसके अंतर की ऊर्जा एक बिंदु पर
केंद्रित होती है, वह मन को आत्मा में विलीन कर देता है.
ध्यान मन को आत्मा में विलीन कर देता है.,,,,
ReplyDeleteRECENT POST ,,,,पर याद छोड़ जायेगें,,,,,
sarthak aur gyaanvardhak ...!!
ReplyDeleteअंतर की ऊर्जा एक बिंदु पर केंद्रित होती है, वह मन को आत्मा में विलीन कर देता है.
ReplyDeleteअद्भुत भाव अंतरतम की ........
बहुत ही सुन्दर बिकुल सही कहा आपने ये अनुभव शब्दों में नहीं कहे जा सकते ।
ReplyDeleteधीरेन्द्र जी, अनुपमा जी, रमाकांत जी, इमरान व मनोज जी आप सभी का स्वागत व आभार !
ReplyDelete