वे संस्कार जो हमें साधना के प्रति सजग करते हैं, हमारे भीतर हैं, ज्ञान के
प्रति यदि प्यास गहरी हो तो वे संस्कार जगने लगते हैं. जीवन मूल्य यदि श्रेष्ठ
हों, श्रद्धा और निष्ठा में कमी न हो तो कृपा अपने आप बरसती है. वाणी पर संयम न
हो, अज्ञान को स्वीकार करने की क्षमता न हो तो सत् हमारे जीवन से चला जाता है.
हमें स्वयं को खुद की कसौटी पर कसना होगा, एक छोटा सा प्रमाद हमें अपने पथ से
मीलों दूर कर देता है. मानव स्वतंत्र है ऐसा मानकर दुःख के काँटों में स्वयं को
उलझा लेता है. अपनी स्वतंत्रता का गर्व ही बंधन बन जाता है तो मुक्ति कहाँ ?
कर्मों के फल की कामना, इच्छा, और अन्यों से सुख की अपेक्षा, ये सब अपने परिणाम
साथ लेकर ही चलते हैं. यदि सजगता नहीं रही तो प्रफ्फुलता खो जाती है.
यदि सजगता नहीं रही तो प्रफ्फुलता खो जाती है.
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति,,,,,,,
बहुत सुन्दर ज्ञान वर्धक विचार अनीता जी सांझा करने के लिए हार्दिक आभार
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लेख.....ज्ञान से ही सारा अंधकार मिट सकता है ।
ReplyDeleteवाणी पर संयम न हो, अज्ञान को स्वीकार करने की क्षमता न हो तो सत् हमारे जीवन से चला जाता है.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
बहुत सुंदर।
ReplyDeleteबहुत गहरी बात कही है अनीता जी ...
ReplyDeleteहमें स्वयं को खुद की कसौटी पर कसना होगा, एक छोटा सा प्रमाद हमें अपने पथ से मीलों दूर कर देता है. मानव स्वतंत्र है ऐसा मानकर दुःख के काँटों में स्वयं को उलझा लेता है. अपनी स्वतंत्रता का गर्व ही बंधन बन जाता है तो मुक्ति कहाँ ?
बहुत अच्छा लगा पढ़ना और विचार करना
आपने सच कहा सजगता न रहने से प्रफुल्लता खो जाती है। निर्मल वर्मा की रचना चीड़ों पर चांदनी पढ़ते हुए मुझे लगा कि मैं अपने परिवेश के प्रति बिल्कुल भी गंभीर नहीं हूँ जितने हमारे बड़े लेखक होते हैं। फिर सहसा मैं बाहर आया, एक पेड़ को देखा, उसमें सुंदर पीले फूल खिले थे, तब मुझे लगा कि सजग दृष्टि न होने से हम कितनी सुंदर वस्तुओं के आनंद से वंचित रह जाते हैं।
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