Tuesday, September 23, 2014

पग घुंघरू बाँध मीरा नाची रे


आनंद पर श्रद्धा हो सके तो भीतर आनंद की लहर दौड़ जाती है. भीतर अनाहत नाद गूँजने लगता है, बिना घुंघरू के छमछम होती है ! जैसे मीरा के पैरों में घुंघरू बंधे थे वैसे ही उसके दिल के भीतर भी बजे थे, बल्कि वे घुंघरू तो दिन-रात बज ही रहे हैं. भीतर एक ऐसी दुनिया है जहाँ आनन्द ही आनंद है, हमें उस पर श्रद्धा ही नहीं होती, आश्चर्य की बात है कि इतने संतों और सद्गुरुओं को देखकर भी नहीं होती. कोई-कोई ही उसकी तलाश में भीतर जाता है, जबकि भीतर जाना कितना सरल है, अपने हाथ में है, अपने ही को तो देखना है, अपने को ही तो बेधना है परत दर परत जो हमने ओढ़ी है उसे उतार कर फेंक देना है. हम नितांत जैसे हैं वैसे ही रह सकें तो भीतर का आनंद तो छलक ही रहा है, वह मस्ती तो छा जाने को आतुर है. हम सोचते हैं कि बाहर कोई कारण होगा तभी भीतर ख़ुशी फूटी पड़ रही है पर सन्त कहते हैं भीतर ख़ुशी है तभी तो बाहर उसकी झलक मिल रही है हमें भीतर जाने का मार्ग मिल सकता है पर उसके लिए उस मार्ग को छोड़ना होगा जो बाहर जाता है एक साथ दो मार्गों पर हम चल नहीं सकते. बाहर का मार्ग है अहंकार का मार्ग, कुछ कर दिखाने का मार्ग भीतर का मार्ग है, समर्पण का मार्ग, स्वयं हो जाने का मार्ग !  


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