Friday, August 22, 2014

मन के रूप अनेक

जनवरी २००७ 
हमारा मन तरल है, इसे जहाँ लगायें वह वैसा ही आकार ग्रहण लेता है. यह वही सोचता है वही कहता है, वही करता है जो हमने इसे सिखाया है. जैसे संस्कार हमने इसे दिए हैं वैसा ही यह बन जाता है. मन से बड़ा मित्र कोई नहीं और इससे बड़ा शत्रु भी कोई नहीं. जब तक इसमें आनन्द की कोंपलें नहीं खिलीं तब तक मन कृतज्ञता के गीत नहीं गाता, और जब तक कृतज्ञता के गीत नहीं गाता तब तक कृपा की वर्षा नहीं होती, कृपा से ही आनंद स्थायी होता है. जो मन स्वयं से दूर हो जाता है वह दुखी हो जाता है. 

3 comments:

  1. मन से बड़ा मित्र कोई नहीं और इससे बड़ा शत्रु भी कोई नहीं. जब तक इसमें आनन्द की कोंपलें नहीं खिलीं तब तक मन कृतज्ञता के गीत नहीं गाता, और जब तक कृतज्ञता के गीत नहीं गाता तब तक कृपा की वर्षा नहीं होती......

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  2. बहुत सुन्दर विचार मान के हारे हार है मन के जीते जो मन जीते वो जगजीत मन से हार और जीत

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  3. राहुल जी व वीरू भाई, स्वागत व आभार !

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