Wednesday, August 13, 2014

चैतन्य को मीत बनाएं

जनवरी २००७ 
जब भीतर सत्संग की चाह जगे, निर्मोहता बढ़े, प्रेम जगे तो मानना चाहिए कि हरिकृपा बरस रही है. किसी ने कहा है,
इन्सान की बदबख्ती अंदाज से बाहर है
कमबख्त खुदा होकर इन्सान नजर आता है

कृष्ण कहते हैं कि जो चैतन्य के साथ स्वयं को जोड़ता है वह अपना मित्र है जो जड़ के साथ जोड़ता है वह अपना शत्रु है. नश्वर वस्तुओं को पाने में हम स्वयं को बड़ा मानते हैं तो यह छोटापन है, उनके खोने से दुखी हो जाते हैं यह भी दुर्बलता है. क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह सभी जड़ हैं, किन्तु कोई दोष हममें है यह मानने से दोष दृढ़ हो जाता है. हमें उसे अपने में न मानकर प्रकृति में मानना है जो परिवर्तन शील है, वह दोष भी बदलने वाला है, जो उत्पन्न हुआ है वह नष्ट होने ही वाला है. अपने दोषों को देखना भर है साक्षी भाव में आते ही दोष मिटने लगते हैं.  

7 comments:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (15.08.2014) को "विजयी विश्वतिरंगा प्यारा " (चर्चा अंक-1706)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।

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  2. नश्वर वस्तुओं को पाने में हम स्वयं को बड़ा मानते हैं तो यह छोटापन है, उनके खोने से दुखी हो जाते हैं यह भी दुर्बलता है.....

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  3. राजेन्द्र जी, राहुल जी, मिश्र जी, वीरू भाई, मन जी, राजीव जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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