Wednesday, August 20, 2014

मुसाफिर देख चाँद की ओर

जनवरी २००७ 
परमात्मा की कृपा अहैतुकी है, वे कृपा स्वरूप ही हैं बस ग्रहण करने वाला मन होना चाहिए. साधक के जीवन में जब तप होता है तब ऐसा मन तैयार होता है. अक्रोध भी एक तप है और अमानी होना भी. वह कृपा आकाश की तरह व सुगंध की तरह हमारे चारों ओर है, हमें चाहिए कि चकोर या भ्रमर बनें और उसे ग्रहण करें. गुरू तो ज्ञान का अमृत बरसा रहे हैं, हमें अपना बर्तन खाली करना है. वे तो बरस ही रहे हैं, हमारा दामन फटा न हो. जीवन को कैसे हम और सुंदर बनाएं, कैसे दूसरों के काम आयें, कैसे सदा हम शांत रहें, भीतर से खाली, हल्के और निर्भार ! यहाँ हम कुछ भी तो नहीं लाये थे जो खोने का डर हो, शरीर अमर तो है नहीं जो मरने का डर हो. जो आत्मा अमर है वह तो मरने वाला नहीं फिर कैसा डर ? परमात्मा है, और हम उसके अंश हैं, यह बात तो तय है, वह न जाने कितनी तरह से अपनी उपस्थिति जता चुका है. वह हर क्षण हमारे इर्द-गिर्द ही रहता है, उसे भी तो हमारी प्रतीक्षा है. वह हमारे द्वारा ही प्रेम पाना चाहता है. 

7 comments:

  1. ....अलौकिक ...सारगर्भित .......!!

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  2. आज फिर एफ बी की वाल पर आपके इस लेख को शेयर किया !!आभार अनीता जी ...!!

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    1. स्वागत व आभार अनुपमा जी !

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  3. उसकी कॉज़लेस मर्सी अहैतुकी दया हम सबको प्राप्त है बशर्ते हमारा ध्यान उधर हो। हम तो उसकी नौकरानी माया से मुखातिब रहते हैं आठों पहर निशिबासर।

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  4. झोली ही अपनी तंग थी, तेरे यहाँ कमी नहीं. जय गरुदेव!

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  5. आपके ब्लॉग को ब्लॉग एग्रीगेटर ( संकलक ) ब्लॉग - चिठ्ठा के "विविध संकलन" कॉलम में शामिल किया गया है। कृपया हमारा मान बढ़ाने के लिए एक बार अवश्य पधारें। सादर …. अभिनन्दन।।

    कृपया ब्लॉग - चिठ्ठा के लोगो अपने ब्लॉग या चिट्ठे पर लगाएँ। सादर।।

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  6. अनुपमा जी, वीरू भाई, राकेश जी, राजेन्द्र जी, आप सभी का स्वागत व आभार !

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