Thursday, May 14, 2015

दिल में ही तो वह बैठा है

फरवरी २००९ 
“तुम जमाने की रह से आये, वरना सीधा था दिल का रास्ता” नजरें झुकाई और नमन हो गया, पलक झपकने से भी कम समय में दिल में बैठे परमात्मा से मुलाकात हो सकती है, पर हमारी आदत है लम्बे रास्तों से चल कर आने की. हम किताबें पढ़ते हैं, ध्यान की नई-नई विधियाँ सीखते हैं, पूजा-अर्चना करते हैं और न जाने क्या-क्या करते रहते हैं ! परमात्मा उस सारे वक्त हमें देखता रहता है, हम उसके सामने से गुजर जाते हैं, बार-बार उसे अनदेखा कर उसी को खोजने का दम भरते हैं. हम प्रेम को छोडकर ईर्ष्या को चुनते हैं ! प्रशंसा को छोड़ निंदा को चुनते हैं, सहानुभूति को छोड़ क्रोध को चुनते हैं. शांति को छोड़ शोर को चुनते हैं. एकांत को छोड़ भीड़ को चुनते हैं. सहजता को छोड़ दिखावे को चुनते हैं. हम वह सब करते हैं जो परमात्मा से दूर ले जाता है और उम्मीद करते हैं कि  हमारा पाठ, जप-तप उसके निकट ले जायेगा. ये तो ऊपरी वस्तुएं हैं, परमात्मा को जिस मन से पाना है उस मन में सब नकारात्मक है, निषेध है, ‘नहीं’ है, नकार है, तो वहाँ वह कैसे आएगा जो सबसे बड़ी ‘हाँ’ है, जो ‘है’, वास्तविक है, सत्य है, प्रेम है, शांति है, आनंद है, हमारा चुनाव ही भटकाता है, जीवन हर कदम पर हमें निमन्त्रण देता है, झूमने का, गाने का और प्रसन्नता बिखराने का, सहज होकर रहने का, पर हम उसे गंवाने की कसम खाकर बैठे हैं. 


2 comments:

  1. परमात्मा हमारे भीतर बैठा है और हम उसे बाहर ढूँढते हैं , यही विडम्बना है ।
    सुन्दर - रचना सुबह - सुबह पढने को मिली । धन्यवाद ।

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  2. स्वागत व आभार शकुंतला जी..

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