'युद्ध और शांति' इन शब्दों से
हम सभी परिचित हैं, कोई राष्ट्र अथवा उसकी सेना के लिए काल को दो खंडों में
परिभाषित किया जाता है, एक युद्ध काल तथा दूसरा शांति काल, दोनों एक साथ नहीं
होते. एक के बाद एक आते हैं. किंतु हम यहाँ बात कर रहे हैं प्रेम और शांति की जो
साथ-साथ होते हैं. प्रेम होता है तो वातावरण शांत हो जाता है अथवा जब शांति होती
है तो प्रेम भीतर से फूटने लगता है. रात्रि की नीरवता में ओस की बूंदों के रूप में
प्रेम ही बरसता है, तथा जब बादल बरस कर जल के रूप में प्रेम बरसा रहे हों तो बाद
में वातावरण कितना शांत व शुभ्र प्रतीत होता है. धरा की गहराई में पूर्ण नीरवता
में बीज प्रेम में ही मिटता है और नये अंकुर का जन्म होता है. परिवार के सदस्यों
के मध्य यदि प्रेम सहज रूप से विद्यमान रहे तो घर में शांति रहती है. यदि प्रेम की
उस धारा में कोई रुकावट आ जाये तो घर की शांति भंग हो जाती है. प्रेम और शांति
हमारा मूल स्वभाव है, हमारा निर्माण इनसे ही हुआ है. हम मानवों ने तन तो ऊपर से
ओढा हुआ है. मन व बुद्धि जहाँ से उपजे हैं, वह स्रोत प्रेम ही है और वहाँ गहन
शांति है.
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्मदिवस - मैथिलीशरण गुप्त और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteआपका लेखन मेरे मन क भेदन कर देता है।
ReplyDeleteपर सहज अनुभूति के लिए स्वयं ही आचरण करना पडता जी🙏