प्रकृति और पुरुष दोनों उसी तरह भिन्न हैं जैसे वाहन और उसका
चालक. गति वाहन में होती है, चालक में नहीं, इसी तरह सारी क्रिया प्रकृति में है,
पुरुष में नहीं. वाहन यदि टूट जाये तो दूसरा लिया जा सकता है, इसी तरह पंचभूतों से
बनी देह जो प्रकृति का ही अंश है, यदि नष्ट हो जाये तो पुरुष को कोई अंतर नहीं
पड़ता, उसे दूसरी देह मिल जाती है. यदि किसी का वाहन क्षतिग्रस्त हो जाता है, तो वह
व्यक्ति दुखी होकर उसका शोक मनाये ही ऐसा जरूरी नहीं, सुखी या दुखी होना उसकी
स्वाधीनता है, इसी तरह यदि देह रोगी हो जाये या वृद्ध हो जाये, अथवा नष्ट हो जाये
तो सुख या दुखी होना पुरुष यानि आत्मा की स्वतन्त्रता है. कर्मों का फल सुख या
दुःख के रूप में मिलता है पर सुखी या दुखी होना केवल हमारे बोध के ऊपर निर्भर करता
है. हर मानव के मन की गहराई में एक स्थान ऐसा है जो निरंतर एकरस है, जो मुक्त है,
यदि कोई उसे जुड़ जाये तो कभी अपनी इच्छा के विपरीत सुख-दुःख का अनुभव उसे नहीं
होगा, वह सदा साक्षी ही बना रहेगा.
आपका सार्थक मनन...विचारणीय है।
ReplyDeleteस्वागत व आभार श्वेता जी
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