Thursday, August 31, 2017

जब स्वयं ही आधार बनेगा

३१ अगस्त २०१७ 
जीवन आज कितना कठिन होता जा रहा है. कहीं अत्यधिक वर्षा, कहीं तूफान, कहीं सूखा..प्रकृति के बदलते हुए रूप भी आज भयभीत कर रहे हैं. समाज में मूल्यों का इतना अधिक ह्रास हो गया है कि मंदिरों और आश्रमों में भी श्रद्धा और आस्था के नाम पर शोषण किया जा रहा है. ऐसे ही समय में जब बाहर कुछ भी भरोसे करने लायक न बचा हो, भीतर जाकर ही उस आधार को तलाशना होगा जो कभी नहीं बदलता. जो भीतर जाकर देख लेता है कि जिसका अपने मन पर ही कोई वश नहीं है, जिसे यही नहीं पता कि अगले पल मन में क्या विचार आने वाला है तो वह बाहर पर नियन्त्रण कैसे कर सकता है. वह नियन्त्रण करने की अपनी प्रवृत्ति का ही त्याग कर देता है. वह कुछ प्राप्त कर लेने की दौड़ से ही बाहर हो जाता है. वह समझ लेता है कि सुख को पाया नहीं जा सकता पर उसके प्रति समर्पित हुआ जा सकता है. अंतर में कृतज्ञता उपजती है. जीवन तब एक उपहार लगता है संघर्ष नहीं लगता. 


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