साधना एक तरह का मानसिक स्नान ही तो है, जैसे दिन भर में तन व वस्त्रों पर धूल या मैल लग जाती है, वैसे ही मन के वस्त्र पर भी मैल जम जाती है जिसे हर सुबह ध्यान, प्रार्थना आदि से हम स्वच्छ करते हैं, स्वाध्याय के माध्यम से उसे सुंदर बनाते हैं. हमारे मन की गहराई में आनन्दमय कोष है, जो वास्तव में हमारा स्वरूप है. जो कभी-कभी झलक भी दिखाता है जब पल भर के लिये मन ठहर जाता है. वह हर पल हमारे सम्मुख प्रगट होने को आतुर है पर हम ऐसे अभागे हैं कि मन को थोड़ी देर के लिये भी इतर विषयों से मुक्त नहीं कर पाते, मन में संसार प्रवेश किया रहे तो उसे कहाँ बिठाएं, मन की ही चलती है ज्यादातर, हम जो वास्तव में हैं वह तो कहीं पीछे ही छिपे रह जाते हैं. जैसे कोई अपने ही घर में एक कोने में दुबका रहे और घर पर पड़ोसी कब्जा कर ले, वही हालत हमारी है. दुनिया भर की फिक्रें हम करते हैं बिना किसी जरूरत के, पर जो वास्तव में हमें करना चाहिए उसके लिये समय नहीं निकल पाते. मनोराज्य बहुत हो गया अब आत्म राज्य की बारी है, आत्मा में रहकर ही विशुद्ध प्रेम का अनुभव होता है.
आत्मा में रहकर ही विशुद्ध प्रेम का अनुभव होता है.
ReplyDeleteEXCELLENT AND ETERNAL LINES.
रमाकांत जी, स्वागत और आभार !
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