Monday, July 21, 2014

ढाई आखर प्रेम का

अक्तूबर २००६ 
नारद भक्ति सूत्रों के अनुसार प्रेम अनिर्वचनीय है. भावुकता प्रेम नहीं है, वह तो भाव से भी परे है. भीतर की दृढ़ता ही प्रेम है, सत्य प्रियता ही प्रेम है और असीम शांति भी प्रेम का ही रूप है. भीतर ही भीतर जो मधुर झरने सा झरता रहता है वह भी तो प्रेम है. प्रभु हर पल हम पर प्रेम लुटा रहे हैं. तारों का प्रकाश, चाँद, सूर्य की प्रभा, पवन का डोलना तथा पुष्पों की गंध सभी तो प्रेम का फैलाव हैं. प्रकृति हमसे प्रेम करती है. घास का कोमल स्पर्श, वर्षा की बूंदों की छुअन सब कुछ तो प्रेम ही है. वृद्ध की आँखों में प्रेम ही झलकता है, शिशु की मुस्कान में भी प्रेम ही बसता है. प्रेम हमारा स्वभाव है और प्रेम से ही हम बने हैं. 

2 comments:

  1. "प्रेम न खेती ऊपजै प्रेम न हाट बिकाय ।
    राजा परजा जेहि रुचै शीष देइ लै जाय ॥"
    कबीर

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  2. सत्य वचन शकुंतला जी स्वागत व आभार !

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