Wednesday, November 2, 2016

मुक्ति की जब जगे कामना

३ नवम्बर २०१६ 

परमात्मा ने मानव को परम स्वतन्त्रता भी दी है और साथ ही परम परतन्त्रता भी. हम आजाद हैं चाहे भला करें या बुरा करें. किन्तु अस्तित्त्व के नियम बड़े सूक्ष्म हैं, जो पल-पल पीछा किया करते हैं और हमारे हर कृत्य का फल हमें भोगना ही पड़ता है ! चाहे वह कर्म मानसिक हो वाचिक हो या शारीरिक हो. कर्म करने की हमें पूर्ण स्वतन्त्रता है पर फल पर हमारा कोई अधिकार नहीं, उसे हम तिल मात्र भी बदल नहीं सकते. कर्म के फल ही हमें बांधते हैं. कर्म का फल हमें दो रूप में मिलता है, एक तात्कालिक सुख या दुख के रूप में और दूसरा संस्कार के रूप में. संस्कार वश हम बार-बार वही कर्म किये चले जाते हैं जिनसे अतीत में दुःख भी पा चुके हैं. इस चक्रव्यूह से निकलने का नाम ही मोक्ष है.

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