जून २००५
हमारे
चित्त की जैसी चेतना है, कर्म का फल उसी के अनुसार मिलता है. शरीर के कर्म का फल
नहीं मिलता. कर्म के पीछे की भावना ही प्रमुख है, पहले मन में ही कर्म उत्पन्न
होता है. निर्मल चित्त से किया गया कर्म सुख का कारण बनेगा. सत्कर्म करते हुए मन
मुदित होता है, यदि मुदिता का स्वभाव बनता जाये तो फल भी मोद के रूप में प्राप्त
होगा. चित्त शुद्ध करने का कर्म भी एक बीज है जो वक्त आने पर सुख का ही फल देगा.
हमारी गति हमारे ही हाथ में है, अवनति में दुर्गति तथा उन्नति में सद्गति है.
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (24 .01.2014) को "बचपन" (चर्चा मंच-1502) पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है,धन्यबाद।
ReplyDeleteस्वागत व आभार राजेन्द्र जी
ReplyDelete