Tuesday, June 11, 2013

निज स्वभाव में टिक जाता जो

अक्तूबर २००४ 
आज का युग अभिनय का युग है. हम नित्यप्रति के अपने व्यवहार में अभिनय करते हैं तो सत्य से, सहजता से दूर हो जाते हैं. वैसे तो किसी ने कहा है, संसार एक नाटक शाला है पर नाटक में भी उसी का अभिनय सराहा जाता है जो सहज होता है. धर्म कहीं हमारे लिए एक कृत्य न बन जाये वह  हमारे स्वभाव का अंग बनता जाये. जब हमें यह ज्ञात हो चुका है, जाना कहाँ है तो चलना ही हमारे लिए उचित है. मनसा, वाचा, कर्मणा कोई भी कर्म हमारे लिए आवश्यक या अनावश्यक न रहे, तो मन सहज रह सकता है, और तब यह जगत जैसा है वैसा ही दिखने लगता है.

5 comments:

  1. हम सब जीवन में नाटक के पात्र की तरह ही अभिनय कर रहें हैं.बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुती,आभार.

    ReplyDelete
  2. अपने ध्येय पर निरंतर अग्रसर होना ही जीवन है ...!!सार्थक बात अनीता जी ...!!

    ReplyDelete
  3. सुन्दर और सार्थक ज्ञान ...

    ReplyDelete
  4. धीरेन्द्र जी, राजेन्द्र जी, अनुपमा जी व दिगम्बर जी आप सभी का स्वागत व आभार !

    ReplyDelete