Sunday, December 22, 2013

खुल जाये हर गाँठ

मई २००५ 
हमारे मन के चार खंड हैं. संज्ञा मानस का पहला खंड है, अर्थात कोई वस्तु सम्मुख आने पर उसकी प्रतीति होना, दूसरा खंड पहचान करने का काम करता है, तीसरा खंड है संवेदना जगाने का, चौथा खंड है प्रतिक्रिया करने का, तभी राग-द्वेष का जन्म होता है. ऊपर-ऊपर से लगता है किसी बाहरी कारण से राग-द्वेष जगता है पर सच्चाई यह है कि इन्हें हम स्वयं जगाते हैं. भोक्ता भाव जब तक भीतर है गांठें बंधती ही रहेंगी, साक्षी होकर उन्हें देखते ही वे खुलनी शुरू हो जाती हैं. हर संवेदना क्षण भंगुर है, नष्ट हो ही जाने वाली है फिर क्यों उसके प्रति राग जगाना या द्वेष जगाना. ऐसा करना सीखने पर कर्म संस्कार नहीं बनते, और यही तो साधक का लक्ष्य है. 

8 comments:

  1. भाव-पूर्ण- बोधगम्य रचना । मन को छू गई ।

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  2. उत्तम बात ... साधना का ये लक्ष्य प्राप्त करना ही जीवन है ...

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  3. अनीता जी आपकी चार-पाँच पंक्तियाँ बहुतों की पूरे पूरे लेख पर भारी पड़ती....
    कभी पधारिए हमारे ब्लॉग पर भी.....
    नयी रचना
    "एहसासों के "जनरल डायर"
    आभार

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  4. साधना का पंथ कठिन है ....किन्तु कोशिश करते रहना चाहिए ....!!तत्व पूर्ण आलेख ।

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  5. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार २४/१२/१३ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी,आपका वहाँ हार्दिक स्वागत है।

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  6. शुक्रिया


    आपकी टिप्पणियों का।

    सब का सब माया का कुनबा है। साक्षी होना बंधन मुक्ति है

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  7. शकुंतला जी, राहुल जी, अनुपमा जी, राजेश जी, वीरू भाई, व दिगम्बर जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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