Monday, December 9, 2013

खो जाए मन द्वार खुले तब

अप्रैल २००५ 
साधक को जीवन में दुःख को पहचानना जरूरी है, पहले उसे स्वीकारना फिर उसे दूर करने की चेष्टा करनी है. जीवन भर अर्थार्थी ही नहीं बने रहना है. अर्थार्थी से आर्त तथा आर्त से जिज्ञासु बनना ही पड़ेगा. पग-पग पर जीवन में हमें दुःख मिलता है, हमारा मन ही सबसे ज्यादा दुःख देता है, इसे जानना अध्यात्म का पहला कदम है. तभी तो हम मन के पार जायेंगे, मन के पार क्या है यह जिज्ञासा तभी उठती है जब हम मन को समझ जाते हैं. मन के पार की झलक ध्यान में मिलती है, जब कोई विचार नहीं रहता, वहाँ, जहाँ कुछ भी नहीं है, वही शून्य है, वही पूर्ण है, वही आत्मा है. इसकी तलाश ही दुखों से मुक्ति की तलाश है. हम ध्यान सीख लेते हैं तो पुनः पुनः ताजा होकर जगत में लौट आते हैं. सारा विषाद घुल जाता है, सारी सृष्टि के साथ प्रेम का सम्बन्ध बन जाता है. 

4 comments:

  1. एक अकाट्य सत्य

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  2. सत्य ... शून्य को पाना पूर्ण को पाने का मार्ग है ...

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  3. दुःख आने का मतलब है दुःख कम हो रहा है। ईश्वर के नज़दीक होतें हैं हम बोनस के रूप में। सुख के पीछे भी दुःख की छाया खड़ी रहती है।

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  4. रमाकांत जी, दिगम्बर जी व वीरू भाई आप सभी का स्वागत व आभार !

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