अप्रैल २००७
संत कहते हैं हम लाख चाहें,
शब्दों से अपनी बात समझा नहीं सकते, जो काम मौन कर देता है वह शब्द नहीं कर पाते. हम
अपने व्यवहार से, भीतर छिपी करुणा से किसी हद तक अपने विरोधी को भी प्रभावित कर
सकते हैं. भीतर जो प्रतीक्षा है उसी में सारा रहस्य छिपा है. आतुरता, प्यास यही
साधना की पहली शर्त है. ज्ञान को जितना भी पढ़ें, सुनें, गुनें, तृप्ति नहीं मिलती.
वह परमात्मा कितना ही मिल जाये ऐसा लगे कि मिल तो गया है फिर भी मिलन की आस जगी
रहती है. प्रेम में संयोग और वियोग साथ-साथ चलते हैं. इसलिए भक्त कभी हँसता है कभी
रोता है, वह ईश्वर को अभिन्न महसूस करता है पर तृप्त नहीं होता, फिर उसे सामने
बिठाकर पूछता है, पर दो के बीच की दूरी भी उसे सहन नहीं होती. वह स्वयं मिट जाता
है केवल ईश्वर ही रह जाता है. ज्ञानी भी एक है, और कर्मयोगी के लिए यह सारा जगत
उसी एक का स्वरूप है. एक का अनुभव ही अध्यात्म की पराकाष्ठा है.
बहुत सुन्दर है मौन तो ठीक है पर मन का भी मुख बंद किया जाए तो मौन और भी सार्थक हो जाए।
ReplyDeleteसही कहा है आपने...मौन तभी सार्थक है जब मन भी चुप हो जाये...स्वागत व आभार !
Delete" जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहिं ।
ReplyDeleteप्रेम - गली अति सॉकुरी ता में दो न समाहिं ॥ "
कबीर
अति सुंदर शकुंतला जी...
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