संत कहते हैं, शब्दों का इतना ही
कार्य है कि भीतर मौन को उत्पन्न कर दे. मौन लक्ष्य है, शब्द साधन हैं. जैसे यदि कोई
व्यक्ति एक प्रश्न पूछता है, फिर जवाब की प्रतीक्षा में रुक जाता है, उस क्षण भीतर
मौन है. जवाब देने वाला व्यक्ति शब्दों के माध्यम से ही उत्तर देता है, पर सुनने
वाला यदि उत्तर से संतुष्ट नहीं होता, तो भीतर एक अन्य प्रश्न का जन्म होता है,
मौन खंडित हो जाता है. यदि उत्तर उसे स्वीकार्य है तो फिर एक क्षण के लिए मौन का
अनुभव उसे हो सकता है. मौन का यह क्षण इतना छोटा होता है कि हम उसे चूक ही जाते हैं.
उस मौन से ही अस्तित्त्व का द्वार खुलता है. शास्त्रों का प्रयोजन इतना ही है कि
हमें भीतर के उस मौन से परिचित करा दे, विचार का जन्म किसी न किसी इच्छा के कारण
होता है, इसीलिए मन से इच्छाओं के त्याग पर इतना जोर दिया गया है. भीतर जब मौन
होता है, तब मन खो जाता है, चेतना केवल अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित रहती है.
जीवन का सार्थक सच
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
Deleteबहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति ,सादर नमस्कार
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
Deleteस्वागत व आभार !
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