जब हम घटनाओं के साक्षी बन जाते हैं, तो मुक्ति का अहसास सहज ही होता है। हम सभी ने यह अनुभव किया है। कई बार हम क्रोध करना नहीं चाहते थे लेकिन किसी बात से क्रोधित हो गए और खुद पर आश्चर्य हुआ।यह क्रोध हमारे भीतर संस्कार रूप से मौजूद था और जब तक वह संस्कार बना रहेगा, हमारे न चाहने पर भी क्रोध आएगा। सुबह से रात्रि तक इस सृष्टि में सब कुछ हो रहा है।कोई उन्हें कर नहीं रहा है। कोई चित्रकार किसी दिन एक चित्र बना लेता है और कवि किसी दिन बहुत अच्छी कविता लिखता है। उनसे कोई पूछे, तो वे आश्चर्य करते हैं कि यह कैसे हुआ! उनके मन की गहराई में वे सब मौजूद है, जो उचित समय आने पर व्यक्त हो जाता है । जीवन ने हमें कदम-कदम पर सिखाया है कि यहाँ सब कुछ हो रहा है। हम कर्ता नहीं हैं। बड़े से बड़ा अपराधी भी कहता है, उसने अपराध नहीं किया, किसी क्षण में यह उससे हो गया। सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि मनुष्य अब भी इसे कैसे नहीं देख पाता कि वह कई कार्य स्वभाव वश ही करता है ! मनुष्य सोचता भर है कि वह स्वयं निर्णय लेकर रहा है। कोई कह सकता है कि यदि उसने प्रयास न किया होता तो उसके जीवन में वह सब न होता जो आज है। पर जीवन में हमें जहाँ जन्म मिला, जैसे परिस्थितियाँ मिलीं, उनमें हमारा क्या हाथ था, हमारे पास उस स्थिति में वही प्रयास करने के अलावा कोई अन्य विकल्प ही नहीं था। किन्हीं कारणों हमारा जीवन एक विशेष दिशा ले ले लेता है और उस दिशा में बहने लगता है।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-03-2023) को "चैत्र नवरात्र" (चर्चा अंक 4650) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी!
Deleteसुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteस्वागत व आभार!
Deleteयथार्थपरक प्रस्तुति।
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
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