हम देखते हैं कि पदार्थ अचेतन है, चट्टान हिल नहीं सकती, इसमें जीवन नहीं है। जीव जगत अर्धचेतन है, वृक्ष, पशु,पक्षी जीवित हैं, लेकिन उनमें विकसित मन नहीं है।मनुष्य चेतन है, उसमें मन है।मनुष्य में चेतना 'मैं' के विचार के साथ आती है।उसके भीतर चिंतन शुरू होता है, उसका व्यक्तित्व अस्तित्व में आता है। मन और बुद्धि के द्वारा वह अतीत का आकलन करता है, भविष्य की योजनाएँ बनाता है। मन को एक तरह की स्वतंत्रता है, वह सही-ग़लत में चुनाव कर सकता है। मन सीखे हुए ज्ञान पर आधारित रहता है। मन में एक के बाद दूसरा विचार आता रहता है इसलिए वह अहंकार के केंद्र द्वारा कार्य करता है। किंतु चेतना की एक चौथी अवस्था भी है जिसका निर्माण करना मानव के हाथ में है।इससे ही अंतर्दृष्टि का जन्म होता है।अंतर्ज्ञान भीतर से आता है, यह भीतर से विकसित होता है। चेतना के इस गुण को जिसे ध्यान, अंतर्ज्ञान, अंतर्दृष्टि, कालातीत होना कहा जाता है; वर्तमान भी कह सकते हैं। यह वह वर्तमान है जिसमें अतीत और भविष्य दोनों विलीन हो गए हैं।बुद्ध इसे ही निर्वाण कहते हैं, हिंदू और जैन इसे मोक्ष कहते हैं। जिसे पतंजलि तुरीय कहते हैं अर्थात 'चौथा'। यह अवस्था ध्यान के निरंतर अभ्यास से प्राप्त होती है। ध्यान हमारी सजगता बढ़ाने में सहायक है। यदि कोई पल-पल सचेत रहने की कला सीख जाता है तो उसे दिन-प्रतिदिन के कार्यों में अधिक सोच-विचार की आवश्यकता नहीं होती। वह तत्क्षण सही निर्णय ले पाने में सक्षम होता है। उसके भीतर एक अंतर्दृष्टि काम करने लगती है।जिसने कभी ध्यान न किया हो ऐसे व्यक्ति के लिए भी किसी ख़तरे के समय सोचने का समय नहीं होता, तुरंत निर्णय लेना है, यदि कोई सजग नहीं है तो दुर्घटना हो सकती है। किसी जाग्रत व्यक्ति के लिए यह उनका सामान्य ढंग है, वह चेतना की समग्रता से जीता है।
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