Friday, October 26, 2012

जिन ढूंढा तिन पाइयाँ


प्रभु अपने भक्तों को अपना दर्शन देते हैं, वे उसको अपना पता बताते हैं जो उनसे पूछता है. वे उसके लिए अपना भेद खोल देते हैं जो उन्हें प्रेम करता है. वे हमारी बुद्धि को प्रज्ञा में बदलते हैं. वे ही हमें इस क्रीड़ास्थल पर भेजते हैं और वे ही इस खेल के नियम भी बतलाते हैं और परिणाम भी. हमें इसे खेल भावना से खेलना है तभी हम इसका पूरा आनंद ले सकते हैं. लेकिन अन्ततः घर लौटना है, वह  घर है उसका सान्निध्य, वहाँ पुष्ट होकर पुनः पुनः इस जगत में आना होता है, पर जिसका मन इस खेल से भर जाये वह सदा के लिए उनके सान्निध्य में रह सकता है. इसे ही निर्वाण कहते हैं. निर्वाण का अनुभव इस जगत में भी हम करते हैं, गहरी नींद में जब हमें अपना भान नहीं रहता, हम प्रायः मृत ही हो जाते हैं, पुनः जगते हैं अथवा जन्मते हैं. ध्यान में भी जब देह का भान नहीं रहे, समय का पता न चले तब उसकी झलक पाते हैं. यह सब मौन में ही अनुभव होता है, अत्यंत सूक्ष्म यह भाव टिकता नहीं पर इसकी स्मृति ही ताजगी से भर देती है.

8 comments:

  1. गहरे पानी बैठना ही तो मुश्किल है। बिना इसके प्रभु दर्शन नहीं देते।

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    1. देवेन्द्र जी, गहरे पानी में पैठना न आता हो तो उथले पानी में ही शुरू करें शेष वह सिखा देता है..

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  2. गहरे उतरना है फिर सबकुछ स्पष्ट है

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    1. रश्मि जी, सही कहा है आपने, आभार !

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  3. आपकी बात से सहमत |

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    1. मीनाक्षी जी, स्वागत व आभार!

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  4. सबहिं नचावत राम गुसाईं।

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