Thursday, October 4, 2012

साहेब तब पीछे फिरत


सितम्बर २००३ 
संत जन कहते हैं अध्यात्म के मार्ग पर लापरवाही नहीं चलेगी. हमारा हर कर्म शुद्ध से शुद्धतर फिर शुद्धतम बनता जायेगा तभी मन निर्मल होगा. कबीर कहते हैं “ कबीर मन निर्मल भया ज्यों गंगा का तीर, साहेब तब पीछे फिरत कहत कबीर कबीर” जीवन का उद्देश्य ही जब प्रेम प्राप्ति हो तो लापरवाही अथवा शरीर के आराम की चिंता में ही लगे रहना मूर्खता ही कही जायेगी. ईश्वर के प्रेम का अनुभव जिसे एकबार हो जाये उसे अन्य रस नहीं भाते, प्रेमसुधा का रस इतना प्रभावशाली होता है कि एक बार चढ़ता है तो उसका असर समाप्त नहीं होता क्योंकि मन भीतर ही भीतर उसे स्वयं में पाने लगता है. मीरा जब दैवीय प्रेम से भरकर गाती थी तो उसका मन इसी रस से छलक रहा होता था, काश हम सभी उसे महसूस कर पाते तो यह दुनिया बहुत सुंदर होती. हम एक-दूसरे को तब अपना बैरी नहीं समझते, सभी के भीतर एक सत्ता है जो आनंद मय है, प्रेममय है, शांतिमय है, ज्ञानमय है, हम सभी को इन्हीं की चाह है, इसी के कारण हम जगत में विभिन्न कार्यकलाप करते हैं. यदि यह ज्ञात हो जाये कि जो हम बाहर ढूँढ रहे हैं वह तो पहले से ही हमारे पास है तो यह स्वार्थ की दौड़ थम जाय. तब भी कार्य तो होंगे पर वे बंधन का कार्य नहीं बनेंगे, तब हम मुक्त होंगे, सही अर्थों में तो आजादी तभी मिलती है जब मन मुक्त होकर उस अपरिमेय, अनिवर्चनीय, अद्भुत रस का अनुभव कर सके, पर उसका स्वाद लेना कोई–कोई ही जानता है, ईश्वर की कृपा और हृदय में सच्ची प्यास ही हमें इस पथ का राही बना सकती है. 

6 comments:

  1. ईश्वर की कृपा और हृदय में सच्ची प्यास ही हमें इस पथ का राही बना सकती है.

    बिल्‍कुल सही कहा आपने

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  2. ईश्वर की कृपा और हृदय में सच्ची प्यास ही हमें इस पथ का राही बना सकती है.

    yahi jiwan ka saty hai

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  3. सदा सत्य रहने वाला कथन सुन्दर रचना

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  4. ईश्वर की कृपा और मन में सच्ची लगन ही हमें इस पथ का राही बना सकती है,,
    यही सत्य है,,,,,

    RECECNT POST: हम देख न सके,,,

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  5. सदा जी, रमाकांत जी, अरुण जी व धीरेन्द्र जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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  6. सुन्दर और ज्ञानमय हमेशा कि तरह।

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