Tuesday, January 22, 2013

अपने ही घर जाना है


जनवरी २००४  
हमारे जीवन में अगले पल क्या घटने वाला है इसकी खबर हमें नहीं होती, हम घटनाओं के साक्षी मात्र होते हैं, पर इस बात से हम अपनी जिम्मेदारियों से भाग नहीं सकते. यदि उस क्षण हम सजग नहीं रहे जहां से घटनाओं का क्रम बदलने वाला था तो बात हमारे हाथ से निकल जाती है, पछताने के सिवाय फिर कुछ नहीं रहता. मूलतः हम सभी एक ही वस्तु के पीछे भाग रहे हैं, वह है चित्त की प्रसन्नता और विश्रांति ! वह हमें अपने घर में ही मिलती है, अध्यात्म हमारा घर है. पर जैसे हम सफर से लौटते हैं तो पहले घर को स्वच्छ करते हैं, वैसे ही साधना द्वारा चेतना की शुभ्र नीलिमा को जागृत करना है. जैसे घर की जमीन में कोई खजाना मिले तो उस पर हमारा ही अधिकार होता है, वैसे ही भीतर के आनंद पर हमारा सहज ही अधिकार है, जिसके मिलने पर सजगता स्वभाव का अंग हो जाती है.

6 comments:

  1. सुन्दर दर्शन जीवन का .आनंद वर्षण है इस धरोहर में .चेतना का उत्कर्ष है .

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  2. सजग होकर भी अनहोनी हो जाती है

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    1. रश्मि जी, सजग होने पर भी यदि अनहोनी होती है तो हम आश्चर्य से भर जाते हैं, स्वीकार भाव में रहते हैं, पर असजग को तो अनहोनी रुला ही देती है.

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