Wednesday, January 23, 2013

त्रितापों से मुक्त करेगा


फरवरी २००४  
दुखों का कारण हिंसा है, संसार जो तीनों तापों से पीड़ित है, वह हिंसा के कारण ही, हम मानसिक, वाचिक और कायिक तीनों प्रकार की हिंसा के शिकार होते हैं तथा दूसरों को करते हैं. परिवार में दुःख का कारण वाचिक हिंसा है पर इसका आरम्भ तो मन से ही होता है तथा अंत भी मानसिक संताप में होता है. विरोध, द्वंद्व, आग्रह तथा अपेक्षा सभी सूक्ष्म हिंसा का रूप हैं. शरणागत होकर हम इनसे मुक्त हो सकते हैं. हमारा मन एक क्षण के लिए भी विक्षुब्ध होता है या झुंझलाता है तो हम हिंसा कर ही रहे होते हैं. हमरा मूल स्वरूप प्रेममय है, आनंद हमारा वस्त्र है और शांति हमारा आश्रय. फिर दुःख से हमारा परिचय कौन कराता है, दुःख जो बाहर से हमें खोजता है, भीतर तो दुःख कहीं नहीं है. मन जो बाहर से आया है, अधैर्य सिखाता है, असहिष्णु बनाता है, हमें स्वयं से दूर करता है, स्वयं को अच्छा मानने के कारण अन्यों को बुरा मानता है. अपने दोषों को नजरंदाज करके अन्यों के दोषों को बढ़-चढ़ा कर देखता है. अपने ही बनाये सपनों के महल का राजा बन बैठता है. ज्ञान हमें इसकी दासता से बचने का उपाय बताता है. ज्ञान से ही हिंसामुक्त समाज की रचना हो सकती है, इसकी शुरुआत स्वयं से ही करनी होगी.

2 comments:

  1. जनकल्याण कारी काल चिंतन है यह पोस्ट .मनोवैज्ञानिक यथार्थ भी .

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