Wednesday, February 20, 2013

याद दिला दे कोई अपनी


अप्रैल २००४ 
होशपूर्वक जीने की कला ही साधना है, सदियों की बेहोशी को तोड़ने के लिए हमें सदियाँ भी लगें तो कोई बात नहीं, जितनी देर तक हम भूले रहे उसे न याद करके जितनी देर होश में रहे उतना मंजिल के पास आ गए. होश में जीने का अर्थ है स्वयं को प्रकृति से ऊपर चैतन्य से जोड़कर निज सहज स्वरूप में रहना. कृपा जब तक न हो इस ज्ञान की तरफ रूचि नहीं होती, ज्ञान भीतर टिकता नहीं यदि मन समाहित न हो, मन तभी समाहित होता है जब ‘मैं’ मन से परे जा चुका होता है, अर्थात उसमें ईश्वरीय प्रेम की ललक लग जाती है, और ऐसा प्रेम तभी जगता है जब उसकी कृपा होती है, पर उसकी कृपा का अधिकारी बनने के लिए तो हमें प्रयास करना ही पड़ेगा., भीतर प्यास जगानी होगी, प्यास जितनी तीव्र होगी पूर्ति भी उसी के अनुपात में होगी. 

5 comments:

  1. प्रभु की कृपा पाने के लिए प्रयास तो करना ही पडेगा,ज्ञानवर्धक प्रस्तुति,आभार है आपका.

    ReplyDelete
  2. कर्म योग का मार्ग प्रभु तक ले जाता हुआ ...
    सुंदर आलेख .....

    ReplyDelete
  3. प्यास जितनी तीव्र होगी पूर्ति भी उसी के अनुपात में होगी.
    बहुत ही सही कहा आपने ...
    आभार

    ReplyDelete
  4. प्यास जितनी तीव्र होगी पूर्ति भी उसी के अनुपात में होगी.,,,
    सत्य वचन

    Recent post: गरीबी रेखा की खोज

    ReplyDelete
  5. राजेन्द्र जी, अनुपमा जी, सदा जी, व धीरेन्द्र जी, आप सभी का स्वागत व आभार !

    ReplyDelete