Wednesday, December 11, 2013

सागर छल छल छलके भीतर

अप्रैल २००५ 
हमें सूक्ष्म दृष्टि का विकास करना होगा, तब सत्य हमारे मन, कर्म तथा वाणी में प्रकटेगा. सूक्ष्म को देखने की शक्ति हमारे भीतर है पर उस शक्ति से हम परिचित नहीं है. बाहर की दुनिया में प्रतिस्पर्धा, लोभ, उत्तेजना के अनेक अवसर हैं, अहंकार को पोषित किया जाता है. हम सत् से असत् की ओर बढ़ते हैं. भीतर के संसार में इतनी गहराई है कि उसका कोई अंत नहीं है पर भीतर की दुनिया के साथ हमारा सम्पर्क नहीं होता, बाहर से हमें भीतर की ओर जाना है, तो असत् से सत् की ओर चलना होगा. सत् के प्रति प्रेम ही हमारे आत्मा की प्यास है. इसे दुनियावी वस्तुओं से बहलाया नहीं जा सकता. वह केवल और केवल उसी सागर को चाहती है जो अनंत प्रेम, शांति और आनन्द का स्रोत है. न जाने कितने शरीर हमने धारण किये हैं, सदा आत्मा की उपेक्षा करके मन को प्रमुखता दी है जिस कारण हम ढगे गये हैं. रेगिस्तान के मरुस्थल जैसा जीवन जीया है पर भीतर की यात्रा हमें उस सागर तक ले जाती है.


5 comments:

  1. सच कहा आपने घट भीतर ही अथाह है ,हम नाहक भटकते हैं बाहर .....!!

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  2. बाहर से हमें भीतर की ओर जाना है, तो असत् से सत् की ओर चलना होगा. सत् के प्रति प्रेम ही हमारे आत्मा की प्यास है....
    सब कुछ भूल जाता हूँ आपको पढ़कर...

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    1. परमात्मा के प्रति आपका प्रेम ही आपको मगन कर देता है

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  3. हे गोविन्द! राख शरण अब तो जीवन हारे ।

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  4. अनुपमा जी व शकुंतला जी, स्वागत व आभार !

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