जनवरी २००८
साधक यदि
चाहे तो स्वयं का कल्याण कदम-कदम पर कर सकता है. हर क्षण हमारे सम्मुख है ख़ुशी का आकाश,
अंतहीन आकाश ! पर हम हर बार धरा को चुन लेते हैं, डरते हैं कहीं आकाश में गुम न हो
जाएँ, पर गुम हुए बिना क्या कोई अपने को पा सका है. एक बार तो मरना ही होता है, खोना
ही होता है, सहना ही होता है नितांत अकेलापन ! जिसके बाद मिलता है निरंतर सहचरी का
भाव, उस परमात्मा से एकता का अभिन्नता का अपार भाव ! वह अस्त्तित्व जो हर पल हमारा
साथी है, पर अभी मौन है, तब मुखर हो उठता है ! हम जो भीतर कटुता छिपाए हैं, छल,
वंचना तथा ईर्ष्या छिपाए हैं वह तब प्रकट हो जाती है. हम उसे अपने से भिन्न देखते
हैं जैसे कोई अपने को देखे और अपने कपड़ों को, जिन पर मेल लगी है, वैसे ही हम अपने
मन को देखें और मन पर लगे धब्बों को. वह परमात्मा हमें उसके साथ ही कबूल करता है.
वह हमें चाहता है, उसके साथ हमारे सम्बन्ध में कोई छल न हो बस वह यही चाहता है.
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