Monday, January 5, 2015

मिटकर ही जीवन खिलता है

अगस्त २००७ 
मैं निर्गुणिया गुण नहीं जाना
एक धनी के हाथ बिकाना
मैं कायर मेरा सद्गुरु सूरा
मैं ओछा मेरा सद्गुरु पूरा
मैं मूरख सद्गुरु सयाना
एक धनी के हाथ बिकाना

जब तक साधक अपनी सारी वृत्तियों को इष्ट के चरणों पर विलीन नहीं कर देता तब तक जीवन में विशेषता नहीं होती. एक बार अन्न का दाना अंधकार में दब जाता है तो हजार गुना होकर वापस आता है. समर्पण इसी को कहते हैं, जो वह करवाए वही करना. जो वह चाहे उसी में हाँ मिलानी ही सच्चा समर्पण है. सद्गुरु को जब साधक समर्पित हो जाते हैं तो जीवन से सारा विषाद चला जाता है. इसके बाद तो केवल भगवान ही भगवान जीवन में रहते हैं ! नया दृष्टिकोण, नई विचार धारा, नया जीवन मिलता है ! उसे भीतर से रस मिल जाता है और वह एकाग्र हो जाता है ! यही एकाग्रता फिर सजगता में बदलती है और सजगता ही ध्यान है, सुरत है, प्रेम है, भक्ति है, ज्ञान है ! 

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