हम अपने सुख के लिए
जितना-जितना बाहरी वस्तुओं का आश्रय लेते हैं, मन की संवेदनशीलता उसी अनुपात में
घटती जाती है. देह को बनाये रखने के लिए जितना आवश्यक है और जो लाभदायक है वैसा ही
और उतना ही आहार यदि हम लेते हैं तो मन सजग है. इसी प्रकार वस्त्र और अन्य
इस्तेमाल में आने वाली वस्तुएं यदि दिखावे के लिए होती हैं तो मन असजग ही कहा
जायेगा. आजकल ध्यान के प्रति लोगों की रूचि बढ़ रही है, किंतु यदि मन सोया हुआ है
तो उसे ध्यान की झलक मिलेगी कैसे. सजगता ही तो ध्यान है. यदि कोई मन को बहलाने के
लिए मनोरंजन का ही आश्रय ले लेता है तो वह भीतर के वास्तविक सुख को पाने का प्रयास
ही क्यों करेगा. संसार के सारे सुख मन के आगे रखे गये खिलौने ही तो हैं. साधक उनकी
व्यर्थता को जान लेता है और और तब ध्यान की यात्रा आरम्भ होती है. मन जब ठहर जाये
तो शुद्ध चैतन्य की पहली झलक मिलती है. पुनः पुनः इसे दोहराने पर यह भीतर की सहज
अवस्था बन जाती है. साधक तब मन से उसी तरह काम ले सकता है जैसे कोई आँख आदि से काम
लेता है, अर्थात जब जो सोचना चाहे उतनी देर उस विषय पर सोचे, यह क्षमता तब विकसित
होती है.
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