मन पानी की तरह है, तरल ! और यह सदा प्रवाह में रहता है. चैतन्य
अचल है पर उसकी ही शक्ति मन एक पल भी स्थिर नहीं रहता. चैतन्य स्वयं में संतुष्ट
है पर मन सदा किसी न किसी तलाश में रहता है. जगत में विज्ञान का जो इतना विस्तार
हुआ है वह मन के इसी खोजी स्वभाव का ही परिणाम है. मन यदि अपने इस स्वभाव से
परिचित हो जाये तो अपने बदलाव को सहजता से स्वीकार कर लेगा. एक तरंग की तरह जो
उसमें चढ़ाव व उतराव आते हैं, कभी वह सुख का अनुभव करता है कभी उदासी का, तो इस
बदलाव को वह एक आश्चर्य की तरह देखेगा, इसका उपयोग करेगा और आगे बढ़ जायेगा. मन गतिशील है एक नदी की धारा
की तरह, कभी उथला है जल और कभी गहरी है नदी, कभी फूलों के हार उसमें बहते हैं, कभी
सड़े हुए पत्तों को लिए कोई सूखी डाल. मन को जिस स्थान से देखा जा सकता है वहीं
विश्राम है. जीवन में गति और विश्राम दोनों ही चाहिए.
बहुत सही कहा आपने ...
ReplyDeleteस्वागत व आभार सदा जी !
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