प्रेम प्रदर्शन की वस्तु नहीं, यह तो दिल में सम्भाल कर रखने जैसा क़ीमती रत्न है। प्रेम पूँजी है। प्रेम एक बीज की तरह है जिसे कोमल भावनाओं से सिंचित मन की भूमि चाहिए, जिसमें क्रोध, ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा या स्वार्थ के खर-पतवार न उगे हों। जहाँ भक्ति की शीतल पवन बहती हो और ज्ञान का सूरज भी अपनी किरणें बिखेरता हो। ऐसे मन में ही प्रेम का वृक्ष पनपता है जो स्वयं को और अपने इर्द गिर्द अन्यों को भी छाया देता है। हम प्रेम को पाकर इतराते हैं और उसे ही अभिमान में बदल देते हैं तो वह बीज सूखने लगता है। प्रेम ऐसा कोमल है जो भाषा की रुक्षता भी सह नहीं पाता, जो ओस की बूँद की तरह नाज़ुक है जो द्वेष की हल्की सी रेखा से भी मलिन हो जाता है। इस अनमोल वरदान को जो हमें जन्म से ही मिलता है, जगत की आपाधापी में गँवा न दें। मिथ्या कठोरता का आवरण ओढ़कर हम उसे बचाए रख सकते हैं, ऐसा हम सोचते हैं पर वह किसी के काम नहीं आएगा। पहले पश्चाताप के आंसुओं में उस आवरण को गलाना होगा,पत्थर जैसे हो गए हृदय को पिघलना होगा फिर उसमें अंकुर फूटेगा जो प्रेम की अनेक शाखा प्रशाखाओं को जन्म देगा जो हमें जीवन की धूप से बचाएँगी तथा औरों को भी विश्रांति देंगी।
प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति
स्वागत व आभार कविता जी !
Deleteबहुत सुंदर प्रस्तुति अनीता जी 👍
ReplyDeleteस्वागत व आभार शालिनी जी !
Deleteसटीक दर्शन! प्रेम में समाहित सभी तत्वों,और प्रेम के आधार पर सुंदर विवेचना।
ReplyDeleteस्वागत व आभार कुसुम जी !
Deleteबहुत सकून प्रदान करती पोस्ट।
ReplyDeleteस्वागत व आभार दराल जी !
Deleteसच में एक अनमोल वरदान ही है प्रेम !! बहुत सुंदर व्याख्या !!
ReplyDeleteस्वागत व आभार अनुपमा जी !
Deleteप्रेम प्रदर्शन की वस्तु नहीं, यह तो दिल में सम्भाल कर रखने जैसा क़ीमती रत्न है। बिल्कुल सही कहा आपने,सादर नमन अनीता जी
ReplyDeleteस्वागत व आभार कामिनी जी !
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