जुलाई २००३
जैसे चन्द्रमा की ओर चकोर देखता है एक निष्ठ होकर, उसी तरह साधक ज्ञान की ओर चित्त
को लगाता है. ज्ञान सारे धोखे हर लेता है, संसार की पोल खुल जाती है. भक्त वही है
जो विभक्त न हो, हम केवल परमात्मा से ही विभक्त नहीं हो सकते, संसार से कितना भी
जुड़ें अलग होना ही पड़ेगा. संसार हर पल बदल रहा है. सदगुरु का ज्ञान हमारे भीतर
बादल बन कर बरसता है, सभी कुछ स्वच्छ करते हुए अंतरात्मा को भिगोता है, भीतर रस
उत्पन्न होता है. अब संसार सत्य प्रतीत नहीं होता है, परमात्मा निकट आ गया है ऐसा
प्रतीत होता है. मन रूपी पक्षी तभी पूर्ण शांति का अनुभव कर सकता है जब वह गुरु
ज्ञान रूपी दानों को चुगे. परमात्मा रूपी खजाना जब भीतर है तो क्यों मन भिक्षु बन
संसार से सुख माँगे, क्यों न उस खजाने को लुटाए.
पढ़ने में सुख मिलता है। करने में चित्त 'चकोर' नहीं 'चंचल' बना रहता है।
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी, पढ़ते पढ़ते कब मन रंग जाता है पता ही नहीं चलता...
Delete:)
Deleteअमृत वाणी.
ReplyDeleteपरमात्मा रूपी खजाना जब भीतर है तो क्यों मन भिक्षु बन संसार से सुख माँगे, क्यों न उस खजाने को लुटाए.
ReplyDeleteपरम ज्ञान की बातें
सदगुरु का ज्ञान हमारे भीतर बादल बन कर बरसता है, सभी कुछ स्वच्छ करते हुए अंतरात्मा को भिगोता है,
ReplyDeleteसुन्दर व् ज्ञानमय ।
ReplyDeleteअमृताजी, इमरान, धीरेन्द्र जी, रमाकांत जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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