Thursday, August 23, 2012

अमन हुआ जब मन


जुलाई २००३ 
जो हमें रुचता है अर्थात जो वास्तव में हम हैं उसे रुचता है- प्रेम, सत्य, सदाचार, विश्वास और श्रद्धा आदि सदगुण, कहीं से भी मिलें ग्रहण कर लेने चाहिए. इस भौतिक जगत में द्वंद्व हर जगह है, शीत-ग्रीष्म, सुख-दुःख आदि. लेकिन हमारे उस आध्यात्मिक जगत में जहाँ हम वास्तव में रहते हैं, कोई द्वंद्व है ही नहीं. वहाँ समरसता है, तो भेद सिर्फ यहीं है, जब तक देहात्म बुद्धि है तभी तक कोई अच्छा-बुरा प्रतीत होगा. समरसता तभी मिलेगी जब मन स्थिर होगा, ऐसा मन जो सभी का कल्याण चाहता है, जो प्रेम बाँटता है, जो इच्छा रहित है. तीनों गुणों के पार है. जहाँ न मान की इच्छा है न अपमान का भय, जहाँ न लोभ है न ईर्ष्या. जहाँ सत्य ही एकमात्र आश्रय है, जहाँ मद, मोह, आलस्य आदि असुरों का नाश हो चुका है. जहाँ भगवती का निवास है, जहाँ शिव का कैलाश है और कान्हा का वृन्दावन है. ऐसे मन में ही ज्ञान टिकता है. तब हमारा होना मात्र ही पर्याप्त होता है, हमारे मन में संकल्प-विकल्प नहीं उठते, सहज चेष्टा होती है, सहज, स्वतः स्फूर्त कल्याणकारी वचन निकलते हैं, तब हमें परिणाम की चाह तो होती नहीं, अतः कर्मों का बंधन नहीं होता. हमारा मन जो अभी स्वयं को द्रष्टा मानता है तब दृश्य हो जाता है और जो वास्तव में हम हैं, द्रष्टा बनकर सब देखता है, तन-मन में होने वाले छोटे छोटे परिवर्तनों को भी वह देख लेता है, मन तब अमनी भाव में आ जाता है.

4 comments:

  1. बेहतरीन भाव भरे लाजवाब पोस्ट।

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  2. प्रेम, सत्य, सदाचार, विश्वास और श्रद्धा आदि सदगुण, कहीं से भी मिलें ग्रहण कर लेने चाहिए
    बेहद सार्थक प्रस्‍तुति ... आभार

    http://sadalikhna.blogspot.in/

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  3. मन को सुकून देती पोस्ट

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  4. इमरान, सदा जी व कुसुमेश जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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