Friday, February 7, 2014

रामकथा सम अमृत नाहीं

जुलाई २००५ 

कितना अद्भुत है वह परमात्मा जो हमारे भीतर छिपा है और प्रेम का ऐसा जाल बिछाता है कि कोमल हृदय उसमें बंध जाता है. ईश्वर का प्रेम अमूल्य है, अनुपम है, अद्भुत है, उसी के कारण तुलसी अमर काव्य की रचना करते हैं, सन्त कथावाचक बनते हैं और श्रोता सुनते-सुनते भाव की गंगा में डूबते उतरते हैं. ईश्वर की कृपा से ही उसका प्रेम मिलता है, सद्गुरु की कृपा से ही ईश्वर की कृपा मिलती है. राम ही आत्मा है, और लक्ष्मण विवेक, सीता प्रज्ञा है और हनुमान ज्ञान. हमारी आत्मा के चारों ओर अभी विवेक की जगह अविवेक है, प्रज्ञा की जगह अविद्या और ज्ञान की जगह अज्ञान, तभी राम भी दूर लगते हैं.

7 comments:

  1. बहुत सुंदर बात ....श्री राम चन्द्र कृपालु भज मन .....हरण भव भय दारुणम ...!!

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  2. "जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहिं ।
    प्रेम-गली अति सॉकुरी ता में दो न समाहिं ॥"
    कबीर

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  3. aapki ye panktiyan man ko bohat sukoon deti hain..

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  4. अति सुन्दर कृष्ण कृपा ज़रूरी है भक्ति के साथ जिस पर कृष्ण की दया हो वही वैकुण्ठ पाता। सहज सरल है कृष्ण भक्ति कृष्ण नाम लेना।

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  5. सच है कृष्ण की कृपा से ही कृष्ण मिलते हैं।

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  6. अनुपमा जी, शकुंतला जी, अपर्णा जी, वीरू भाई तथा ललित जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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