Tuesday, March 11, 2014

रसो वै सः

सितम्बर २००५ 
 आत्मा जो सूक्ष्म तथा तेजस शरीर के साथ अनादि काल से रह रही है, तप रही है. सूक्ष्म विकार और वासनाएं न जाने कितने-कितने जन्मों से उसे जला रही हैं, वह शीतलता चाहती है. शुद्ध रूप में तो वह स्वयं प्रेम स्वरूप है पर अभी उस पर कर्मों के संस्कार चिपके हैं. वह मलिन है, परमात्मा रूपी जल ही उसे तृप्त कर सकता है. यूँ तो परमात्मा तो हर क्षण उसके निकट ही है, उसके हर सुख-दुःख की खबर भी उसे है. वह उसे हर पल निहार रहा है पर आत्मा ही अपने आवरण में ढकी उसे नहीं देख पा रही है. जब ज्ञान मिलता है कर्म संस्कार ढीले पड़ते हैं तो उसे कुछ भास होता है, वह परमात्मा के उन्मुख होना चाहती है पर अहंकार आड़े आ जाता है, कभी बुद्धि भ्रमित करती है. ज्ञान यदि हमें रूखा-सूखा और गर्वीला बना दे तो वह ज्ञान भी व्यर्थ हो जाता है. हमें तो सरस बनना है.  

7 comments:


  1. बहुत सुन्दर जनरंजन/कल्याण कारी आध्यात्मिक जाकारी

    ReplyDelete
  2. उस रस-निधान को शतशः नमन ।

    ReplyDelete
  3. वीरू भाई, शकुंतला जी, स्वागत व आभार !

    ReplyDelete
  4. हमें तो सरस बनना है. ...

    ReplyDelete
  5. रसो वै सः


    श्रीरामकृष्ण : रस स्वरुप तो 'भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस' हैं , हमें रसिक अर्थात उनका भक्त बनना है , और दूसरों को भी उनका भक्त बनने में सहायता करनी हैं !

    'Be and Make ' let this be our Motto .-Swami Vivekananda

    ReplyDelete