Tuesday, March 18, 2014

एक नूर से सब जग उपज्या

अक्तूबर २००५ 
जीवन में कितनी भी विपरीत परिस्थितियाँ आयें, भक्त एक क्षण भी परमात्मा को नहीं भूलता, भूले भी कैसे ? जो स्वयं याद आता है, तो कौन उसे भुला सकता है ? शास्त्र कहते हैं परमात्मा  एक था, उसने सोचा अनेक हो जाये, वह अपने भीतर के प्रेम को विस्तारित करना चाहता था, आदान-प्रदान करना चाहता था, जैसे सन्त-महात्मा स्वय तो पूर्ण तृप्त होते हैं पर भीतर जो प्रेम का दरिया बह रहा है उसे लुटाना चाहते हैं. हम जो अपने मूल को भुला बैठे हैं, भटक रहे हैं. भक्त ने अपने मूल को पहचान लिया और उससे जुड़ गया, प्रेम का एक अद्भुत आदान-प्रदान उनके मध्य होने लगा.

2 comments:

  1. स्वागत व आभार अनुपमा जी !

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