Tuesday, March 25, 2014

सागर में उठती लहरें जब

अक्तूबर २००५ 
हम इस जगत में सुख-दुःख के झूले में झूलने नहीं आये हैं बल्कि अखंड आनंद से मिलने वाली शांति प्राप्त करने आए हैं, ऐसी शांति जो जगत की हलचल से समाप्त होने वाली नहीं होती है. यह शांति उस ज्ञान से प्राप्त होती है जो हमें भक्ति करने के लिए प्रेरित करता है, ज्ञान का अंत भक्ति में ही है. भक्ति का अर्थ है अपने आप में रहना, कोई कामना नहीं, कोई उद्वेग नहीं, कोई विक्षेप नहीं, मन की वह अवस्था ही ईश्वर की निकटता की अवस्था है. वह निर्लेप, निसंग अवस्था ही अखंड शांति की अवस्था है, यही हमारी सच्ची अवस्था है, वही हमारा स्वरूप है. उसी में स्थित होकर भक्त कवियों ने ईश्वर की आराधना की है. मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार तो आत्मा रूपी सागर में उठने वाली लहरे हैं, जब यह लहरें न रहें तो शांत सागर अपने स्वरूप में स्थित रहता है. एक बार उस अवस्था का अनुभव हो जाने के बाद यदि लहरें उठती-गिरती रहें तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, फर्क तभी पड़ता है जब हम उनके साथ संबंध बना लेते हैं. जब तक हमारा संबंध दृश्य के साथ नहीं है, हम द्रष्टा भी नहीं हैं, साक्षी भाव में आ जाते हैं. आत्मा में स्थित हुआ जीव सुख-दुःख का भागी नहीं होता, वह तो सम अवस्था में ही रहता है. 

2 comments:

  1. भक्ति का अर्थ है अपने आप में रहना, कोई कामना नहीं, कोई उद्वेग नहीं, कोई विक्षेप नहीं, मन की वह अवस्था ही ईश्वर की निकटता की अवस्था है....

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  2. ज्ञान का अंत भक्ति में ही है. भक्ति का अर्थ है अपने आप में रहना, कोई कामना नहीं, कोई उद्वेग नहीं, कोई विक्षेप नहीं, मन की वह अवस्था ही ईश्वर की निकटता की अवस्था है.

    सुन्दर पोस्ट ज्ञान कपाट खोलती हुई पोस्ट शुक्रिया आपकी सादर टिप्पणियों का।

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