Friday, October 31, 2014

भीतर झरना प्रेम का

अप्रैल २००७ 
प्रकृति और पुरुष ये दो तत्व हैं. आत्मा यानि पुरुष और देह, मन, बुद्धि, चित, अहंकार ये सब प्रकृति है. क्रोध, लोभ, मोह, मद, मान आदि सूक्ष्मतर प्रकृति है. माया हमें प्रकृति में ही घुमाती रहती है, आत्मा से मिलने की फुर्सत ही नहीं देती. जीवन में यदि विश्राम आ जाये तो माया को पार करने का उपाय आ जाता है. विश्राम आता है निष्काम होने में. सहज, स्वाभाविक आत्मनिवेदन के बाद ही निष्कामता आती है. अपने गुण तथा अवगुण दोनों को समर्पित करके स्वय खाली हो जाना ही आत्मनिवेदन है. जितना-जितना हम भीतर से खाली होते जाते हैं उतने-उतने अहंकार से मुक्त होते जाते हैं. माया तभी तक वार करती है जब तक अहम है, हम जब तक हम हैं. जब कुछ भी नहीं बचा तो केवल आत्मा ही रह जाती है जो स्वयं शून्य है. वह अनंत है, सत्य है, प्रेम है, शांति है. उसी आत्मा को जो सर्वगुण सम्पन्न है, कृष्ण का नाम दे दिया गया. जिसका रूप अनुपम है, मधुर है वह कृष्ण आत्मा रूप में हरेक के हृदय में विराजमान है. वही इस सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है, वही वेदान्तियों का ब्रह्म है तथा उसी की शक्ति यह प्रकृति है. 

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