Thursday, April 23, 2015

जिस पल घटे समाधि भीतर

जनवरी २००९ 
निर्वाण, वैकुण्ठ, सत्य, प्रेम, मोक्ष, मुक्ति, ईश्वर, आत्मा तथा परमात्मा सारे शब्द एक की ओर इशारा करते हैं ! उस एक को जो पाले वह जीवन का परम सौभाग्य प्राप्त कर लेता है. उसके सारे बंधन जल जाते हैं, चाह मिट जाती है. पूर्ण तृप्त हुआ वह जगत में आनंद बांटता फिरता है ! जो मिल जाये उसी में संतुष्ट हुआ वह सहज प्राप्त कर्मों को करता हुआ नित आत्मानंद में डूबा रहता है ! यह आत्मानंद सभी को सहज प्राप्त हो सकता है, बस आवश्यकता है अपने भीतर देखने की, जागकर अपने बाहर देखने की, अपने कर्मों पर नजर डालने की ! हमारे कर्म ही हमारी सोच को गढ़ते हैं, सद्कर्म सद्विचारों की ओर ले जायेंगे. सद्विचार पुनः हमें अच्छे कर्मों में लगायेंगे. हमारा आचरण यदि हमारे मन की गवाही देगा तो जीवन में सौम्यता व रस बरसेगा. किन्तु जब हमारे सोचने व करने में अंतर होगा तब भीतर का द्वंद्व किसी न किसी रूप में बाहर प्रकट होकर ही रहेगा. कोई भी भाव या विचार अपना असर छोड़े बिना नहीं जाता. जब भाव, विचार तथा कर्म तीनों शुद्ध हों तभी उसकी झलक मिलती है. वह तो चारों ओर बिखरा हुआ है, भीतर भी वही है. उसी का विस्तार है यह सृष्टि, जब भीतर मौन छा जाता है, तब उसका आभास होता है. मौन में ही पूर्ण सत्य का अनुभव किया जा सकता है. वह समाधि का क्षण है. शांति का उद्गम स्रोत भी वही है. वही निर्वाण है. जब मात्र शून्य शेष रहता है. शांति को अनुभव करने वाला भी नहीं रहता. एकाध क्षण को ऐसा अनुभव सभी को होता है, पर हम इसे पहचान नहीं पाते ! 

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