जनवरी २००९
भगवद्गीता में
श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘श्रद्धावान लभते ज्ञानं’ अदृश्य के प्रति विश्वास ही श्रद्धा
है, जो हम जानते हैं वह बहुत थोड़ा है उससे जो हम नहीं जानते. उस अव्यक्त का हमारे
जीवन पर असीम प्रभाव पड़ता है. श्रद्धा का अर्थ है पूर्ण समर्पण, जो कुछ भी हमारे
साथ हो चुका है, हो रहा है, अथवा भविष्य में घटने वाला है, सभी को पूर्ण स्वीकार
करते हुए साक्षी भाव में, समता में टिके रहने का नाम ही पूर्ण समर्पण है. असंतुष्ट
व्यक्ति श्रद्धा नहीं रख सकता. वह परम विश्रांति को भी उपलब्ध नहीं हो सकता. जीवन
में अच्छे-बुरे सभी तरह के अनुभव होते हैं, साक्षी को प्राप्त हुए चित्त पर उनकी
कोई छाप नहीं पडती ! वह दर्पण की भांति सभी कुछ अपने ऊपर से गुजर जाने देता है. वह
कोई भी प्रतिबिम्ब नहीं ठहरने देता, सदा वर्तमान में ही रहता है. वास्तव में वह
होता ही नहीं, जैसे एक वृक्ष है, वह होकर भी नहीं है. वैसे ही हम भी प्रकृति के
साथ एक होकर जी सकते हैं. निर्भार, निर्द्वंद्व और पूर्ण आनंद में. श्रद्धा हृदय
की वस्तु है, तर्क मस्तिष्क की उपज है. तर्क तनाव से भर देता है, श्रद्धा प्रेम से भर देती है, जीवन
को ऊंचा उठाती है !
श्रद्धा हृदय की वस्तु है, तर्क मस्तिष्क की उपज है. तर्क तनाव से भर देता है, श्रद्धा प्रेम से भर देती है, जीवन को ऊंचा उठाती है !.................
ReplyDeleteतर्क तनाव से भर देता है, श्रद्धा प्रेम से भर देती है,
ReplyDeletekitni sahi baat kahi aapne
राहुल जी व सदा जी, स्वागत व आभार !
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