Monday, May 25, 2020

तू ही बिगाड़े तू ही संवारे


समय सदा एक सा नहीं रहता. हर सुबह पिछली सुबह से अलग होती है और हर मौसम पिछले बार से कम या ज्यादा गर्म या ठंडा. हमारे इर्दगिर्द का सब कुछ जब बदल रहा हो तब भी हम कई मामलों में स्थायित्व की कामना करते हैं. हमारा खुद का मन भी दिन के हर प्रहर में बदल जाता है, भोर में जो सहज ही शांत था, दोपहर होते-होते उसकी भावदशा बदल जाती है. इस परिवर्तन को यदि हम स्वीकार कर लेते हैं तो अपनी ऊर्जा को बचा लेते हैं. यदि विरोध करते हैं तो भीतर द्वंद्व उतपन्न हो जाता है जिसमें ऊर्जा का अपव्यय तो होता ही है, आसपास का वातावरण भी बदल जाता है. जीवन को वह जैसा-जैसा मिलता है वैसा ही स्वीकारने से हम विराट के साथ एक समन्वय स्थापित कर लेते हैं, हमारे भीतर और बाहर में एक संतुलन स्थापित हो जाता है. यदि कोई भीतर से किसी बात को अस्वीकार करता हो और बाहर से किसी विवशता के कारण मान लेता हो तो उसके मन में एक दरार पड़ जाती है. जगत के साथ उसका संबंध अपनेपन का नहीं रहता. भक्त की महिमा इसीलिए शास्त्रों में गायी गयी है, वह अस्तित्त्व के आगे अपनी इच्छा को प्रमुखता नहीं देता, यदि उसकी और अस्तित्व की कामना एक है तो वह उसे प्रभु की कृपा मानता है और यदि उनमें विरोध है तो वह उसे उनकी दया मानता है. इस तरह वह निर्भार होकर जीने की कला सीख लेता है. 

4 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (27-05-2020) को "कोरोना तो सिर्फ एक झाँकी है"   (चर्चा अंक-3714)    पर भी होगी। 
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
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    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

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  2. बहुत बहुत आभार !

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  3. सार्थक सृजन आदरणीया दीदी
    सादर

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